भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंधेरी रात / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़रीबी झोपड़ी में खांसती रही
अमीरी कोठियों में हँसती रही
झोपड़ी झांकती दर्द के झरोखे से
फटे बादल की आंखें बरसती रहीं

घूंघट में कई सांसें घुटती रही
जो सवर्णों के दिल में मचलती रहीं
ऐसे न जाने कितने लोगों के घरों में
हमेशा गरीबी नंगी जलती रही

ईंट पे ईंट चढ़ गये कोठियों के
मेरे आटे खिसकते गये रोटियों से
बना के इमारत वहाँ पर न जायें
ग़रीबी को अमीरी, काटी कैंचियों से

ढह-ढह के लगता बदन ढह गया है
जुड़-जुड़ के कोई सनम बन गया है
तस्वीर में बन्द यादों का झरना
उबल करके कोई भंवर बन गया है

पतलून टाई व कोट पैंट बढ़कर
जाति के बुत को पहनाये चढ-बढ़कर
बड़ी गाड़ियों में अमीरी की बातें
जाम पे जाम चले गिरता छलककर

सभाओं में भविष्य का कार्यक्रम होता है
सफ़ाई लिपाई ‘औ’ पुताई का होता है
मक्खियां फिसलती है संगमरमरों पर
हाथ में हाथ डाले इकरार नामा होता है

इंसान की जगह नहीं, गाड़ी में कुत्ते हैं
गंदी बस्ती से कभी न भूल वे चलते हैं
दुनिया का दुर्गंध उन्हें यहीं से मिलता है
गोद में उनके कुत्ता पर बदबू नहीं लगता है

मर्यादा पैसे के ताजू में तौलकर
अंग्रेजी भी उलटी सीधी चंद बोलकर
ग़रीबों को गाली कमेंट लगाते हैं
फुटपाथ पर गरीबों को गंदा बताते हैं

अफसर बाबू दलाली फरमाते हैं
योजना परियोजना हड़प कर जाते हैं
ग़रीबों के हक को अमीरी की चाभी से
बैंक के बक्से में बंद कर जाते हैं

पर्यटन पर जाते हैं, जंगल व पहाड़ों में
सागर किनारे या कुदरती खदानों में
आदिवासी जीवन को, सरल बताते हैं
उनकी समस्या को जीवन बताते हैं

जंगल ज़मीन हटा-मिटा के यहाँ
पहाड़ जंगल में भेजते रहते हैं
कारखाने में लगा धुंये की चिमनी
असहाय पीड़ित को कुचलते हैं

आवाज़ दब जाती है सत्ता के सामने
संपत्ति की ऊंची इमारत के सामने
संसाधन के ढेर पर कब्जा जमाये जो
छोड़ न मेरे कुछ जीने के मायने