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अंधेरे पर मोहर / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कुछ दीप जले
रोशनी की मोहर लगी
अंधेरे की बही पर
अपने अंत पर भी
ख़ुश है अंधेरा
उसकी मौजूदगी में
हुए गुनाहों ने उसे
बदनाम कर दिया है
वरना बुरा नहीं है अंधेरा
थकान को आराम दे
समेट लेता है अपनी बाहों में
अंधेरे में खिलता है
हरसिंगार ,रातरानी
अंगड़ाई लेता है प्रेम
जो विश्व की किसी भी
करेंसी से अधिक कीमती है
प्रेम के संग
हरे हो जाते हैं सूखे पेड़
खिल पड़ती है
सरोवर में कुमुदिनी
तारों का काफिला
चल पड़ता है विश्व के
अनंत विस्तार में
अंधेरे ने दिए हैं
अनंत आकाश
आकाश गंगाओं को
फिर भी वह ख़ुश है
रोशनी की मोहर से
वह जानता है
वह होगा ,तभी होगी रोशनी