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अंधेरे में दीये / बाल गंगाधर 'बागी'

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नीचे सपने दीये के अंधेरे हुये
कुछ धुआं बन धुआं बन धुआं बन चले
कागजों की बनी नांव चलती रही
झील से सागरों तक मिले ना मिले
वो सुबह की किरण फूल की कोंपले
ओस की बूंद में हम खिले कब खिले
आज भूला नहीं बीता अफसाना भी
भूल कर वो हमें याद आते रहे
आज भंवरा नहीं है दिवाना ये मन
गाकर हम जो कलियां सुझाते रहे
जो हंसती भटकती रहीं तितलियां
हम पतंगों से उनको फंसाते रहे