भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंधेरे में / पूर्णिमा वर्मन
Kavita Kosh से
अंधेरे में अचानक
सुंदर हो उठता है कमरा
सपाट हो जाती हैं दरारें
दीवारों की ।
चमकते हैं शेल्फ़ बिल्लौरी
और उन पर सजे हुए
स्फटिक
बिखेरते हैं अपनी किरनें
अंधेरे में ।
किताबें अचानक
नयी हो उठती हैं बिल्कुल
सजी हुई तरतीब से
बीच-बीच में उन्हें रोकने वाली
ख़ूबसूरत टेकों के साथ ।
सज जाते हैं फूल और मूर्तियाँ
आलों पर
खिड़की को पार कर
आने लगती है
नयी हवा ।
भय लगता है
कोई जला न दे रौशनी
और सपनों का यह शीश महल
बिखर जाये पल भर में ।