अंधेरों को मिटाना चाहता हूँ / रविकांत अनमोल
अंधेरों को मिटाना चाहता हूँ
कोई दीपक जलाना चाहता हूँ
हर इक ग़म को भुलाना चाहता हूँ
ज़रा सा मुस्कुराना चाहता हूँ
धड़कता है यही अरमान दिल में
नया कुछ कर दिखाना चाहता हूँ
तिरी बातों में सौ धोके सही पर
तिरी बातों में आना चाहता हूँ
दिलों में जब दयानत-दारियां थीं
वही गुज़रा ज़माना चाहता हूँ
रवां अश्कों की जाने क्या है नीयत
मगर मैं मुस्कुराना चाहता हूँ
बहुत बातें रक़म हैं दिल पे मेरे
कोई साथी पुराना चाहता हूँ
मिरी मिट्टी न मुझसे रूठ जाए
ख़ला में घर बनाना चाहता हूँ
वो बातें जो फ़ज़ा में ज़हर घोलें
मैं उनको भूल जाना चाहता हूँ
मुसलसल याद जो आते हैं उनको
मुसलसल याद आना चाहता हूँ
मिरी नींदें उडा कर सोने वाले
तिरे खाबों में आना चाहता हूँ
बहाने लाख हैं जीने के लेकिन
क़ज़ा को आज़माना चाहता हूँ
तुम्हें मैं ढूंडता फिरता हूँ दिलबर
फ़क़त तुम को ही पाना चाहता हूँ
ज़माने से निभी है कब किसी की
मैं तुमसे ही निभाना चाहता हूँ
ज़माने की हक़ीक़त दोस्तो मैं
ज़माने को दिखाना चाहता हूँ
मैं क्या हूँ कौन हूँ कब से हूँ कब तक
बस अपनी थाह पाना चाहता हूँ
मैं किसके वास्ते हूँ कश्मकश में
किसे 'अनमोल' पाना चाहता हूँ