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अंधे कुएँ में / संगीता गुप्ता

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सपनों में आते हैं बच्चे कभी दो - चार कभी पूरा हूजुम पर्तें चिपकी चेहरों पर मैल की, डर की, अभावों की


बुढ़ापे की दस्तक जैसी
एक पर्त और
साफ झलकती

कभी नहीं हंसते
न उड़ाते पतंग
न ही पकड़ते तितलियां ये
न ठुनकते
न मान करते
बस
पेट के लिए -
हाथ फैलाते या करते अदने से काम
चमकाते बूट या कारों के षीषे
दूसरों के लिए करते चोरी और
पकड़े जाते

किसी अंधी गली के
अंधे कुएं में
गिर जाती हूं
छटपटाती हूं
पौ फटने तक
कुएं से निकल
धरती को छूने के लिए