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अंर्त्तनाद / संजय अलंग

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अधनंगा ज़िन्दगी को घसीटता
किनारे पड़ा जीव
शायद मानव
दैयनीय, लुंज-पुंज, असहाय
देखता न कोई उसे
अपने से फुरसत कहाँ किसे
न अपनी गली की
न गाँव की
न देश की
चिंता है कहाँ किसे
न समझाने को कोई, न बताने को

इन मानवों औ’ गलियों से ही भारत

ए सुन और उठ
इनकी बहुमूल्यता तू जान
आख़िर कब तक
यूँ निकालते रहेंगें हम
स्वतंत्रता दिवस पर मात्र विशेषांक