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अंश / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
बेटा ढूँढ़ता है
भीड़ में अपना घर
और हर बार लौटते हुए बाहर से
उठा लाना चाहता है
भीड़ के अंश
अपने सूने पड़े घर में
हर कन्धे पर झूलना चाहता है
सकुचाता है
झिझकता है
चिड़चिड़ाता है
और फिर लिपट जाता है
माँ के कन्धों से
झूलता हुआ तारों तक
उस वक़्त माँ उसके लिए
क्या हो जाती है पता नहीं?
पर माँ जानती है
अपनी लाख कोशिश के बावजूद
अपनी पूरी ईमानदार कोशिश के बावजूद
वो नहीं बन पाती है पिता।