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अकथ नहीं नैनों की भाषा / प्रेमलता त्रिपाठी

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अकथ नहीं नैनों की भाषा, होता मन उद्गार है।
पल में रोती हँसती पल में, नत नयना स्वीकार है।

करते बस जो मीठी बातें, बहुभाषी मन के कुटिल,
अंदर बाहर अलग विलग से, मन में भरा विकार है।

हो शुचिता का भाव हृदय में, मुख की आभा स्वयंहो,
वाणी सुखद अमृत बरसाये, देता अजब निखार है।

आर्द्र नयन मुखरित नयन हो, चितवन बाँकी चंचला,
प्रीति सहज मन की आँखों में, ममता और दुलार है।

नैनों की है रीति निराली, प्रकट करें हृद भाव को,
लेकर प्रेम हृदय की करुणा, नीर बहाता धार है।