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अक़्ल बड़ी बे-रहम थी / ख़ुर्शीद अकरम
Kavita Kosh से
दिल को उस के दुख की घड़ी में
तन्हा छोड़ दिया
जिस्म ने लेकिन साथ दिया
दुख के गहरे सागर में
दिल को छाती से लिपटाए
जिस्म की कश्ती
होल रही है डोल रही है
अक़्ल किनारे पर बैठी
मीठा मीठा बोल रही है
दुनिया के हँगामों में
उल्टी जस्त लगाने को
बाज़ू अपने तौल रही है