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अकाल का पहला दिन / राजकमल चौधरी

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राजेन्द्र प्रसाद सिंह के लिए

जब पूरा का पूरा यह शहर
मुज़फ़्फरपुर
खारे पानी में डूब गया
औरत वह बेमिसाल
मीराजी की ग़ज़ल में शीशे के बिखरे हुए —
टुकड़ों पर छूटती-बिखरती रह गई
बेनहाई हुई, बग़ैर सँवारे बाल ...

उसके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं,
हरे, पीले, नीले, सफ़ेद साँप रेंगते हैं
उसके होंठों में शब्द नहीं

शब्द नहीं
मुड़े हुए घुटनों के ऊपर
अन्धेरी झाड़ियों में
सिर्फ़ एक अक्षर
होता है बीज-मन्त्र
स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं
स्त्रीं स्त्रीं
और
कुछ नहीं होता है अकाल ... केवल यही ... कि ...
पूरा का पूरा यह शहर खारे पानी में डूब जाता है
उस एक बेनज़ीर औरत के मातम में,
हम एक नया मर्सिया क्यों नहीं लिखे ?