अकाल के दृश्य / कमलेश
(यह कविता नहीं है)
एक जंगल के रास्ते पर
मैली पगड़ी बान्धे चार काले चेहरे
एक बच्चा सात-आठ साल का पीछे-पीछे
लाल-लाल गर्द अपने चेहरे पर जमने दे रहे हैं
धँसी हुई आँखें, गालों के गढ़े सब भर आए हैं धूल से
इन्हें कौन-सी चीज़ अस्वीकार है--
भूख या दया या कंगाल चेहरा ।
हर मुख से केवल याचना के बोल, हर मुखर
दूसरों की ज़रूरतें समझता, जहाँ पानी नहीं है
वहाँ चुप्पी है, आँखों में निरीह कीचड़ है,
जहाँ विधायक नहीं है भारत सेवक समाज का
अध्यक्ष है, जहाँ कोई नहीं, 'केयर' का
सभ्यवेष प्रतिनिधि है ।
आख़िर सब कहाँ गए जिन्हें 'टेस्ट-वर्क' में जाना था;
सुबह-सुबह जंगल की ओर क्या ज़रूरत पड़ी थी, ओवरसियर
सरकारी क़ागज़ में क्या काम दिखाएगा, गँवार सब
अपने फ़ायदे की बात भी नहीं समझते ।
आज क्या आएगा नेता जीप में बैठा
या कोई पत्रकार, अफ़सर, किसके लिए
पगडण्डी बनवानी है ?
कहीं कोई गाँव में जवान नहीं, सब बूढ़े-बुढ़िया
तसला लेकर बैठे हुए, बच्चे व्यग्र लोभ से
खिचड़ी का फदकना निहारते ।
क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने
कितनी मिट्टी काटी, क्या कोई दाता फटे पुराने
कपड़े ले आया था, किस बुढ़िया को साड़ी
नहीं मिली, गर्मी में भी कम्बल
किसने लूटा !
ताऊन और चेचक और अख़बार की ख़बर
और अगले नेता का स्वागत, क्या अस्पताल का
बड़ा डाक्टर भी आएगा ।
बाज़ार में आज छह छटाँक की ही दाल मिली, प्याज भी
चाँदी की तरह तेज़, डेढ़ रुपये कचहरी में
लग गए कहाँ से लाते तरबूज, सुना, ऊँच गाँव में
कोई गमी हो गई !
सुबह से ही उठने लगता है बवण्डर, उड़ उड़ कर धूल
ज़मीन की परतें उघाड़ती हुई सिवान पर सिवान
करती रहती है पार, कहीं दूर रेगिस्तान में टीले
खड़े हो रहे हैं, देवी का मन्दिर कहीं देसावर में ।
रख दिया सुदामा ने अपने बेटे की नौकरी
का सवाल, अफ़सर भला है, फिर ब्राह्मण है
करेगा कुछ ख़याल, इतना बड़ा धर्म का काम
इनके सिर पर है, ये हज़ारों के पालता ।
कभी के सूखे पड़े पत्तों पर रात को
ओस की दो बून्दें टपक जाती हैं, पसली-पसली गाय
रात भर घूमती रहती है जंगल में
बदहवास, थक कर सुबह कहीं बैठ जाती है ।
किसी दरवाज़े, किसी बैठक में चार छह लोग
सुरती ठोंकते, तमाकू जगाते बैठ जाते हैं
किस्सा छेड़ते उस साल का जब ठाकुर की
सात-सात भैंसें एक-एक कर सिवान में
अचेत हो गई थीं, लोग मरते थे, कोई मृत्यु के समय मुख में
गंगाजल भी नहीं डाल पाता था ।
बहुत सारे चेहरे डबर-डबर आँखों से झाँकते हैं
थोड़ी दूर पर वही आँखें डूब जाती हैं, कुछ धब्बे
बियाबान में चक्कर लगाते हैं धूमकेतु की तरह
यह सब मिल कर बहुत बाद में चन्द्रमा का कलंक बन जाते हैं ।
हम कहाँ से किसलिए आए हैं ?