भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकाल / नेहा नरुका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिसने अकाल देखा हो वह थोड़ा-सा गेहूँ हमेशा बचाकर रखता है
बेशक, उस गेहूँ में घुन लग गया हो, पर फिर भी
अकाल देख चुका व्यक्ति उस गेहूँ को फेंकता नहीं
वह अपना ज़रूरी समय घुन बीनने में गँवाता है
वह इन्तज़ार करता है खिलकर आई धूप का
उछल-उछलकर बहते पानी का
वह धोता है गेहूँ, सुखाता है, परेवा उड़ाता है, फटकता है, बीनता है,
एक पीपा भरकर अपने घर के कोने में रखता है
जिसने अकाल देखा हो …

अकाल को देखना ऐसा ही होता है
अकाल हमेशा रहता है उसके मन में
एक समय के बाद मन से सब उतरता जाता है
पर अकाल नहीं उतरता
नहीं मिटती पेट से उसकी स्मृतियाँ

कलकत्ता की सड़कों पर भूख से मर चुके मनुष्यों की लाशें बिछी हैं
भूख से व्याकुल क़ैदी औरतें खा रही हैं अपने शिशुओं को
ईश्वर ने स्वर्ग से भेजा है अपनी सन्तानों के लिए अकाल
राजा ने भेंट किया है अपनी प्रिय प्रजा को अकाल

ऐसी क्रूर कल्पनाएँ करती हैं पीछा अकाल देख चुकने के बाद

मगर जो अकाल के बाद आया है उसे आश्चर्य होता है :
कोई घुन लगे गेहूँ को भला खा सकता है क्या
कीड़े भी कोई खाता है क्या ?

एक नस्लद्वेषी हँसता है :
चीनी साँप खा जाते हैं
चीनी चमगादड़ खा जाते हैं
चीनी जानवरों के लिंग खा जाते हैं …

अकाल में पैदा हुआ बच्चा सब खाता है
जंगल में बड़ा हुआ मनुष्य जानवरों की तरह बोलता है
रेगिस्तान में फँसा शुद्धतावादी अपना पेशाब पीकर प्यास बुझाता है

अकाल देख चुका व्यक्ति थोड़ा-सा गेहूँ बचाकर
अहिंसक परम्परा में अपना थोड़ा-सा योगदान देता है ।