अकेलापन / सुदर्शन रत्नाकर

शिथिल होते शरीर के साथ
मन भी शिथिल हो रहा है
कोई भी तो नहीं
जो पकड़ कर हाथ
ले जाए बाहर
देख लूँ दुनियाँ
पी लूँ बयार
जो अभी-अभी बहनी शुरु हुई है
लौट जाएगी फिर
और आ जाएँगे तपन भरे दिन
जलेगा तब शरीर
मेरे मन की तरह
जो अब भी जलता है
बंद कमरे में अकेले बैठ कर।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.