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अकेलेपन में / रवीन्द्र दास

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अकेलेपन में
जब उठ जाता हूँ सतह से
तो नहीं रह जाता है फ़र्क
जान और अनजान में।
दुनियादारी में कभी वे कहते हैं,
कभी वे सुनते हैं,
पूछना कुछ भी
पैदा करता है अंतहीन विवाद
फिर भी बने रहते हैं हमारे सम्बन्ध
बरसो-बरस
जहाँ कोई,
अनात्म अन्य छोड़ जाता है
ख़ूबसूरत रत्न
हम सभी निकट सम्बन्धी
बटोर लेते हैं अपने-अपने हिस्से
माहौल बड़ा ख़ुशगवार होता है
उन दिनों,
दुनिया में होता हूँ मैं
जहाँ समय सार्थक होता है
भविष्य के लिए दी जाती है बधाईयाँ
रतजगे होते हैं
इसी क्रम में,
जब भी उभरता है वाजिब सवाल
और चलाई जाती है चकरी
भाव और विचार की छाती पर
मैं अकेला हो जाता हूँ
जगत में सब कुछ
आवृत्ति मूलक है ?
ऐतिहासिक कुछ भी नहीं !