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अकेले की ओर- 2 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     मैं तुम्हारे द्वार पर
     जो मेरी प्रतीतियों में ही अधिक
     प्रच्छन्न आभासित-सा है
     सृष्टि के पलों को
     अपने पलों के साथ जी रहा हूँ
     मुझे पूरी तरह भान है
     कि इन पलों की
     और इन्हें भरपूर जी लेने की
     अपनी अपनी सीमाएँ हैं
     पर मेरे हृदय के आपूर्य आवेग ने
     इन सीमाओं का ख्याल न कर
     मेरे इन पलों को लंबाता
     मुझे आगे ठेलता रहा है.

     मैं अपने व्यक्ति की खिड़कियाँ खोले
     हवा के स्पंदनों में
     अपने स्पंदनों को ढूँढ़ते
     और सर्वदिक बरसते
     प्रकृति के करुणाजल से
     अपने भीतर बाहर को भिंगोते
     निरंतर आगे बढ़ता रहा
     अपनी सीमाओं को
     समय के प्रवाह में घिसता रहा
     अपने ‘मैं’ को
     अपने अंतर की चोटें देता रहा
     पर मैं निस्पृह नहीं था

     अनुकूल परिणाम की स्पृहा
     मेरे मन में बनी हुई थी.

     अपने पलों के साथ
     मैं बहता रहा
     पर इतना मैंने जरूर किया
     कि इन पलों के प्रसरण
     इनकी इयत्ता
     और इनमें उद्बुद्ध जीवन-सत्ता को
     मैं अपने ध्यान में जीता रहा
     मैं इनसे पूरी तरह बाखबर था
     फिर भी
     न मालूम कब कैसा क्या हुआ
     कि एक क्षण मुझे लगा
     मेरी सीमाएँ पिघलने लगी हैं
     मैं बॅूद बॅूद तिरोहित होने लगा हूँ
     और तुम्हारी तरफ ढरकती हुई
     मेरी चेतना-धारा
     उलटकर मेरी तरफ बहने लगी है.

     नाव अब भी मेरे अकेले की है
     पल भी मेरे अकेले के हैं
     पर वह धारा
     अब मेरे अकेले की ओर
     बह रही है
     और मैं अकेला स्थितिमात्र हुआ-सा
     अपने इस अंतःप्रवेश का
     साक्षी-सा हो रहा हूँ
             
     सृष्टि के पलों को
     अपने पलों में जी रहा हूँ.