अकेले की नाव- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
धरती पर जब मेरी आँखें खुलीं
मिट्टी के स्पर्श ने
मेरे पैरों में बल भरा
ममता भरी आँखों की
उष्मल छुअन ने
मेरे पोरों में जीवन की उष्मा भरी
मैं प्रकृति के नेह से नहा उठा
तब सामने पसरी प्रकृति मेरी थी
मैं प्रकृति का था.
जब मैंने जीवन में प्रवेश किया
मुझे लगा
मिट्टी तो अब भी स्पर्श-मधुर है
पर उन आँखों में
अब दृष्टियों की एकरूपता नहीं है
स्नेह के झीने धागे
अब डोरियों में बदल गए हैं
एक कदम भी आगे चलने पर
उनके कसाव का अनुभव होता है
इनको झिटक देने पर
मुझे लगता है मैं अकेला रह गया हूँ
हाँ अंतरिक्ष का आह्वान
जैसा तब था वैसा अब भी है
आज भी
कुछ उष्मल आँखों के आमंत्रण
मुझे खींचते हैं
पर ये आँखें मेरे समानांतर ही
प्रकृति की कोख में
कहीं स्वतंत्र रूप से खुलीं हैं
जो प्रेमल हैं, उर्जपेाषी हैं
उनके आबद्धन की आकांक्षा
मेरे भीतर से उमड़ी पड़ती है.
इन्हीं के साथ
अनेक अतृप्तियों की एकांत अनुभूतियों से भी
आज मैं अवबोधित हूँ
जिनकी पूर्ति के लिए
कुछ ही पल की टकटकी के बाद
मैं बिलकुल अकेला हो जाता हूँ
और इस यात्रा के लिए
स्वयं मुझे अपने अंतर को
आवेग देना पड़ता है
अर्थ यह कि मुझे अपनी नाव
स्वयं ही खेनी पड़ती है
बिलकुल अकेले अपने अकेले की.
मित्र !
अद्भुत है यह दुनिया
इसमें कसाव भी है और आकर्ष भी
इनकी जड़ें बहुत गहरी हैं
अतः इनके संतुलन में
अकेले की नाव खेना
एक रोमांचक अनुभव है
उसमें बहुत कुछ खोने
और बहुत कुछ पाने का आनंद है
इनके उच्छल अभियान में
मन और शरीर की पीड़ाएँ
जैसे विधि-लेखी हैं
सृष्टि के आकाश में
बहुत सारे कंपन प्रकंपन हैं
जो सहज संवेद्य नहीं है
पर वायु में तरंगित
तुम्हारे प्रखर आमंत्रण ने
मेरी संवेदना के द्वार खोल दिए हैं
और मैंने अपने अकेले की नाव
तुम्हारी तरफ मोड़ ली है
अब मैं
नभवासी चंद्रमा की तरह
तुम्हारी तरफ अग्रसर हूँ
तुम्हें इसका भान अवश्य होगा.
मित्र !
यह अग्रसरण मेरा संकल्प है
पता नही इसका पर्यवसान
तुम्हारे प्रति मेरे समर्पण में होगा
या तुम-सा हो रहने में
जो कुछ भी हो
अभी तो अपनी नौका खेते रहना ही
मेरा ध्येय है
मैं चलता रहूँगा, अपनी नौका खेता रहूँगा
हर पल हर क्षण