मित्र !
देह और देही के बीच
रच गए आकाश में
जिसे तुमने
अपने अनुभव और अस्तित्व से
तय कर लिया है
मेरे अकेले की नाव संतरण पर है.
अपनी नाव के संतरण के लिए
मैंने कगारों से बल लिया है
उन कगारों से
जहाँ मेरे प्रयाण के पक्ष भी थे, विपक्ष भी
जहाँ समय के प्रवाह में बदलती
संसार की संपूर्ण प्रवृत्तियॉ थीं
और विद्यमान थे
इन्हें केंद्र में लेने के
ज्ञान विज्ञान के सारे प्रयत्न
इससे भी बढ़ चढ़ कर थी
इस अतल और अछोर आकाश के
अंतर्भेदन की
मेरी उन्मुक्त अभीप्सा.
आकाश को बाहों में भर लेने का
उद्दाम आवेग
मैंने अपने स्रोतों से लिया है
अपनी रचना के परमाणुओं को
पोर पोर टटोला है
और मैंने वहॉ पाया है
अपने अभियान का पूर्ण प्रसरण.
अपने पोरों का संसरण
और अपनी स्नायुओं का हौसला नापकर
मैंने अपनी पालें खोल ली हैं
बूँद में दिगंत की यत्रा के लिए.
बड़ी ही सूक्ष्म और
विस्तीर्ण है यह कुक्षि
जिसमें मुझे यात्रा करनी है
इसमें डगमगाती नौका के लिए
कोई टिकाव नहीं है
नौका की संभारित अतियों का संतुलन
मुझे खुद ही रचना है
बड़ा कठिन है यह कार्य.
पुराकाल में इसे रचने
लोग हिमालय जाते रहे हैं
जीवन के कोलाहल से हटकर
जीवन के सूत्र रचते रहे हैं
किंतु आज इसे सरे बाजार रचना है
भीड़ में खड़े खड़े ही
मुझे अंतःप्रवेश करना है
नियति के फैलाव में ही
नियति का अंतःकेंद्र ढूँड़ना है
तभी यह नौका दौड़ते मेघों पर
स्यंदन दौड़ाने जैसी खेई जा सकेगी
अपनी पूरी त्वरा में, अपने पूरे अस्तित्व में