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अकेले की नाव- 3 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
       बड़ी अद्गुत है यह मेरे अकेले की नाव
       कोई आभरण नहीं, पर
       पूरी लदी फदी लगती है
       कोई दिशा नहीं
       पर पूरी अभिदिष्ट-सी है.

       यह कोई मतिभ्रम है या सत्याभास
       मालूम नहीं
       पर यह स्थिति
       न मुझसे झेली जाती है
       न छोड़ी ही जाती है
       इसमें टिक रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण है
       बस यूँ कहूँ कि
       सीधे झोंक देना है अपने आप को
       उस धधकती आग में
       मेरा होना ही जिसकी आहुति है.

       पर इस धरती पर उतरा हूँ


       तो धरती के अनुशासन
       छूटने से तो रहे.
       ये झलकियाँ
       मुझे आनंदित करती हैं
       अपने पौरुष का
       उद्भेद पाता हूँ मैं इसमें
       दिगंत को ललकारने का
       अपार बल महसूस करता हूँ
       अपने पोरों में
       पर इस विचिकित्सा से
       मैं उबर नहीं पा रहा हूँ
       कि आँखों की राह
       अभ्यंतर में उतरने पर
       देही देह का अंतर मिट जाता है
       पर आँखें खुलीं तो
       देह-सत्य को नकारना कठिन लगता है.

       तुम्हारी लौ की विकीर्ण उष्मा से
       मैं आंदोलित हूँ
       पर मेरे अंतर में
       लोक के केालाहल भी
       एक आंदोलन रच रखे हैं
       धरती का पुत्र होकर धरती की वेदना से
       मैं आहत न होऊँ
       यह कैसे हो सकता है
       आभास और एहसास के पाटों में
       ऊब डूब होती मेरी आँखें

       तुम्हारी लौ की तरफ अपलक संदिष्ट है
       स्नायुओं में किसी अ-पर की आहट
       और परे की सनसनाहट लिए.