अकेले की नाव- 4 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
अपने सामने पड़े दृश्य
अपने अस्तित्व की सरसराहट
और अपने तईं अनुभूत संसार को
अपनी कोख की उष्मा में तपाते
बिंदु में दिगंत की यात्रा पर निकल पड़ा हूँं
अकेले, अकेले की नाव लिए.
मैं इस उन्मुक्त आकाश में
उन्मुक्त यात्रा का आकांक्षी हूँ
राह में
संघर्ष की कौन सी स्थिति होगी
मैं नहीं जानता
क्योंकि यात्रा के लिए
जो मैंने राह चुनी है
वह दृष्टि के प्रतिष्ठानों से नहीं
मेरे अपने प्रतिमानों से होकर जाती है
जो कुछ भी टकराहट या टूटन होगी
वह मेरी ही निर्मिति में
मेरी ही निर्र्र्मिति की होगी
जो प्रतिमाऍ टूटेंगी, खण्डित होंगी
उनकी दरकन की आहट
मैं अभी ही सुनने लगा हूँ.
मैंने अपनी काया में, चिति में
बहुत सारे जंगल
और झाड़ियॉ उगा ली हैं.
इनसे निर्भार होना ही
संघर्ष का पहला मुद्दा बनेगा
लेकिन मुद्दा बनाकर
राजनीतिक जंग मुझे नहीं छेड़नी
मेरी तो दृष्टि
अब सीमा में नहीं अँट रही
काँटों से लहू लुहान होते भी
पर-अपर में
उलझने का संशय लिए भी
मर्मभेदन का संकल्प प्रगाढ़ करते
मैं तिर रहा हूँ
अपने अकेले की नौका पर
अपने अकेले की पतवार खोले.
स्मृतियाँ मेरा पीछा नहीं छोड़तीं
इनसे पीछा छुड़ाने को मैं तत्पर भी नहीं
आकर्षणों को मैं-सा
मैंने इन्हें ध्यान में ले लिया है
विकर्षण मेरे जीवन का प्रेय नहीं है
मेरे पोर-पोर में
संतुलन की कामना है.
मै सृष्टि से विमुख नहीं हूँ
हो भी कैसे सकता हूँ
दृष्ट अदृष्ट के तार तो
मैंने तोड़ लिए हैं
अपनी इस अकेले की यात्रा के लिए
पर हवाओं पर मेरा वश नहीं
वे अपने स्पर्श से
कभी अभिभूत, कभी कातर
करती रहती हैं मुझे
सृष्टि की सुकृतियाँ और विकृतियाँ
मुझ तक लाना नहीं भूलतीं
मैं इनकी वर्जना कर
इनको बलात ठेलकर
अपने से दूर नहीं कर रहा
वल्कि इससे भींग कर
इन्हें भी अपनी चेतना से भिंगो रहा हूँ
और मैं चकित हूँ यह गुन कर
कि तीखे सवाल मुझे विक्षिप्त नहीं करते
वरन एक समझ विकसित करते हैं
मेरे परमाणुओं में
मैं संघर्ष की उत्तुंगता को
भास्वर बनाते
उसी वीणा की लय में समेकित करते
तिर रहा हूँ
अकेले अकेले की नाव लिए