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अकेले के पल- 10 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     मेरी आकांक्षा बन रही है
     कि मैं इस अंतराल को
     जो मेरे तेरे बीच रच गया है
     जीना सीख लूँ
     कदाचित कल
     यह मेरा आकाश बन जाए.

     मैं समझता हूँ
     मेरे ‘मैं’ के दृढ़ संयोजन का तरलीकरण ही
     संभवतः अस्तित्व का साक्षात है.

     मित्र !
     अद्भुत है
     इस अंतराल की प्रवाहमयता
     इसमें कबीर की उलटबाँसियों की
     अनुभूतिशील प्रवणता है
     इसमें
     कभी बूँद समुद्र में समाती दीखती है
     कभी समुद्र बूँद में
     कभी शून्य की संवेदना से
     मेरा आपाद तरबतर हो जाता है
     मेरी इयत्ता की लकीरें
     तिरोहण के सुपुर्द होने लगती है.

     प्रकृति की सत्ता में

     प्रकृति की संज्ञानों का खोना
     अद्भुत अनुभव है
     अपनी मिट्टी के आधार पर
     पैर टिका कर
     मैं इस अनुभव की कला
     सीखना चाहता हूँ
     अपने खट्टे मीठे पलों के साथ
     इस अंतराल का
     मैं सहयात्री बनूँगा
     इसे जीना सीखूंगा
     जीवंत होकर.