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अकेले के पल- 11 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     कल तक मैं बाती था
     स्नेह-तरल लौ पर टिकी थीं
     मेरी आँखें
     बड़ी उत्कंठा थी वह लौ
     मेरा अनुभव बन जाए.

     उत्कंठा अब भी है
     पर अब वह
     मेरे तंतुओं का आवेग नहीं
     उनकी रसमयता है
     वह मेरी कल्पना में,
     आठों पहर की कल्पना में,
     निरंतर घट रही है
     लोक-यथार्थ से बिना कटे.

     मेरी ऑखों के एक तिल में
     अतींद्रिय घट रहा है
     दूसरे में
     जगत का व्यापार.

     लौ अब भी मुझसे दूर है
     एक सूक्ष्म आकाश जितनी दूर
     पर अब उसके संस्पर्श की उत्कंठा नहीं
     वही हो रहने की ललक है.

     मैं बहुत खुश हूँ
     कि अब मैं
     अपने कदमों की आहट सुन सकता हूँ
     मेरे कदम मेरे अनुशासन में हैं
     उनके अपने पल हैं
     अपने पदचाप हैं
     जिनकी थरथराहट में
     वे अपने को रचते हैं.

     दूर दूर तक मैं देख रहा हूँ
     एक सूना सागर
     सन्नाटों में लहरा रहा है-
     मेरे सन्नाटों में,
     मैं खुद भी अपने सन्नाटों में
     ऊब चूब हो रहा हूँ.

     कभी सूक्ष्म की छुअन
     कभी स्थूल का स्पर्श

     और फिर
     मेरे पोरों में प्रकंपन,
                   
     अद्भुत है यह अनुभव.

     इस अतिरेक में
     कह नहीं सकता
     मेरी ऑखें उस लौ पर टिकी हैं
     या वह लौ खुद ही अपनी आँखें
     मुझपर टिकाए है
     मित्र ! मेरे पल
     कितने अपने हो गए हैं.