अकेले के पल- 12 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
मैं बखूबी जानता हूँ
कि मैं तुमसे
मात्र लौ भर की दूरी पर हूँ
किंतु यह दूरी
अंतरिक्ष की समाई लिए
प्रतीत होती है.
बड़ी उत्कंठा है इसे मैं तिर जाऊँ
सतत प्रयत्नशील हूँ
पर पालें अभी
फड़क कर ही रह गई हैं
पूरी तरह खुलीं नहीं.
प्रस्थान-बिंदु से
तुम्हारी चिति के छोर तक
नाव खे कर आना
मुझे सरल लगा था
हालांकि मैं अकेला था
अकेले की ही मेरी नाव थी
इस यात्रा के पलों से उलझना
उनके सामने
सीना तान कर खड़ा हो जाना
मुझे साहसपूर्ण तो लगा
पर कम परिश्रमसाध्य नहीं.
अपने परिवेश से तारतम्य बिठाती
मेरी स्वतंत्र चिति मेरा संबल थी
पर यहाँ आकर
वह भी अपर्याप्त लगती है
यहॉ तो
बस सर्वांग स्वतंत्र होना ही
मार्ग है.
प्रकृति की स्थूलता से जुड़ा पंक्षी
तभी आकाश में छलांग लगा सकता है
जब परिवेश से वह आवेग तो ले
पर सर्वांग स्वतंत्रता के
पर खोलने का
अंतरावेग पा जाए.
कदाचित यह अंतरावेग
सम्यक रूप से
अभी मैं पा नहीं सका हॅू
पर उत्कंठा मैंने खोई नहीं है.
इस कछार पर थिर होकर
मैं सागर की उठती गिरती
लहरें गिनने में व्यस्त नहीं हूँ
मैं बीत रहे हर एक पल में
पलों का प्रवाह हो जाने के लिए
सतत प्रयत्नशील हूँ.
मित्र !
ये पल बड़े अद्भुत हैं
जिन्हें मैं जी रहा हूँ
मेरी बुद्धि इस दूरी को तय करने की
तरकीबें सोचती है
हृदय भावों से भरा है
इनके अतिरिक्त मेरी अंतर्गुहा में
और भी कुछ है
जो उठती गिरती तरंगों की
गिनती नहीं करता
उनका साक्षी बनकर
स्वयं तरंगें हो जाने को
प्रेरित करता है.
बड़े अद्भुत हैं ये पल
इनमें उलझनें भी हैं सुलझनें भी
नदी के प्रवाह की
बीतती त्वरा है इनमें
मैं पलों की इस त्वरा को
उनकी जीवंत अनुभूति में
नहाता हुआ देखता हूँ.
तुम्हारे मेरे बीच की
लौ भर की दूरी
ज्यों की त्यों बनी हुई है
मैं अपने अस्तित्व की कल्पना में
समो देने का आकांक्षी
और आग्रही हो रहा हूँ.