अकेले के पल- 13 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
क्या गजब है
ऑखों की टकटकी तुम्हारी तरफ है
चेतना तुम्हारे मौन से नहाई हुई है
पर दुनिया की ध्वनि
यहॉ भी सुनार्इ्र देती है
तुम्हारी देशना के अनुरूप
ध्यान की एकाग्रता के लिए
मैं इन्हें रोक नहीं रहा
बरसात की बूँदों की तरह
इन्हें बरसने दे रहा हूँ
फिर भी मेरे सीने में यह प्रश्न
धड़क जाता है कि
दुनिया मेरे बाहर है या अंदर
बस्तियों से वीरानों, बीहड़ों
और कंदराओं से होकर
मैं यहॉ पहुँचा हूँ.
यहाँ दूर दूर तक
निसर्ग की एकरसता है
सूरज की किरणों से
न जाने कौन सा संदेश पाकर
कमल पंखुरियों में खुल रहे हैं
पंछियों के कंठ से
प्रकृति गुनगुना रही है
मगर इन सब के साथ
मेरे ध्यान में
दुनिया के गीत भी हैं.
मैं कभी निस्पृह
कभी करुणार्द्र हो जाता हूँ
कैसा रहस्य साधे बैठे हो मित्र
अपने गर्भ में !
इन सारी स्थितियों से
तुम्हें गुजरना पड़ा होगा
पर तुम अपना दीया आप हो गए
मैं लकीरें पीटता रहा
आज भी पीट रहा हूँ.
हाँ इतना अंतर अवश्य पड़ा है
कि मेरी दृष्टि में
मेरे अंतर्बाह्य
अब एकसाथ ही तरंगित होते हैं
मैं उन्हें देखता हूँ
और भरपूर देखता हूँ
खुले मन से, खुली आँखों से.
मैं तरंगें नहीं गिनता
वल्कि बाजवक्त ऐसा लगता है कि
मैं स्वयं तरंगें हो जाता हूँ.
मित्र !
क्षण भर का यह एहसास
मुझे प्रश्नाकुल कर देता है
कि जो मैं देख रहा हूँ वह
मेरा विस्तार है
या सामने पसरे विस्तार का ही
मैं सूक्ष्म प्रतिबिंब हूँ
फिर भी
विस्तार और प्रतिबिंब का भेद
मेरे मन में अभी भी है.