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अकेले के पल- 8 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     तेरे आंगन तक तो
     मैं पहुँच गया, पर
     लौ से बाती जितनी दूरी
     अभी भी बनी हुई है
     मेरे और तुम्हारे बीच.

     जरा सी दीखती यह दूरी
     बड़ी पीड़क है
     बुद्धि झनझना जाती है
     अनुभूति छोटी पड़ जाती है
     पर हिम्मत मैं हारूँगा नहीं
     विवेक और अनुभूति को और बड़ा करूँगा
     प्रयोग और प्रयत्न के बल
     अपनी पूरी इयत्ता को
     अपनी पूरी रचना को
     झकझोर डालूँगा
     अपने समकालीन पलों के साथ
     बीते पलों को भी
     बींध डालूँगा मैं.

     मन की खाई से भी
     अब मुझे डरना नहीं है
     अनुभव बताता है
     मैं डरा
     तो मूल्यवान पल छूट जाऍगे
     मेरी यात्रा के संवेदन

     मन का अवबोधन बन जाएँगे.

     मेरे मित्र !
     लौ तो बाती का अनुभव है
     मुझे बाती की तरफ लपकती लौ को
     अपना अनुभव बनाना है.

     कुछ पल तक
     पृथ्वी ग्रह पर तेरे ठहरने ने
     बाती और लौ के बीच के
     अंतराल का यात्रा पथ
     मुझे समझा दिया है.

     देहांतरण के बाद भी
     तुम वर्तमान की अभिव्यंजना हो
     अपार्थिव
     मैं वर्तमान की व्यंजना हूँ
     पार्थिव
     इस अंतराल-यात्रा की
     समस्त पीड़ाओं को
     समस्त अनुभवों को
     मैं झेलूँगा
     कदाचित दूर दीखती वह लौ
     इन्हीं तरंगों में उद्भासित हो उठे.