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अकेले के पल- 9 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     कहते हैं
     नदी के साथ रहना आ जाए
     तो नदी सब सिखा देती है.

     नदी के पास कल कल ध्वनि है
     तो गहन मौन भी
     अविरल प्रवाह है
     तो किनारों की तलस्पर्शिता भी
     गति की धरोहर है
     तो अवरोधों की वर्जना भी.

     नदी अवरोधों के पीड़न से
     खीझती नहीं न डरती है
     उसे अनागत के आमंत्रण का संज्ञान है
     और अंतरिक्ष के आह्वान का
     सार्थक भान भी
     वह धरती के आलिंगन का
     पुलक लिए भी
     बूँदों की छलांग से आकाश नापती है
     जीवन के सातत्य
     और उसके संपुटित अस्तित्व के प्रवेग से
     उसका प्रत्यंग झंकृत है
     मैं उस अंतराल का हो जाऊँ
     अंतराल के साथ रहना सीख लूँ
     शायद यह अंतराल
     मुझे सब कुछ सिखा दे.