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अक्षर-अक्षर, तिनका-तिनका चुनना पड़ता है / वशिष्ठ अनूप

अक्षर-अक्षर ,तिनका-तिनका चुनना पड़ता है,
भीतर-भीतर कितना कहना-सुनना पड़ता है।

चिड़िया जैसे नीड़ बनाती है तन्मय होकर,
कविता को भी बहुत डूबकर बुनना पड़ता है।

दुहराना पड़ता है सुख-दुख को हँसकर-रोकर,
यादों में खोकर अतीत को गुनना पड़ता है।

इतनी गुत्थमगुत्था हो जाती हैं कुछ यादें,
जज़्बातों को रुई- सरीखा धुनना पड़ता है।