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अक्षर / सविता सिंह
Kavita Kosh से
आख़िर मैं लौट गई
उस क़िताब में
जिसका मैं पन्ना थी
अंत तक प्रतीक्षा की
अंत तक पेड़ कहते रहे
तुम आ रहे हो
अंत तक जंगल तुम्हें पुकारता रहा।
एक चिड़िया अंत तक कहती रही
अभी लौट जाओ
एक दिन तुम्हें पढ़ने कोई अवश्य आएगा
अभी तुम अक्षरों बिम्बों धवनियों में रहो
अभी तुम्हारा अर्थ खुल नहीं पाएगा
तुम्हें समझने वालों में अभी
सबसे कम नुकसानदेह क़िताब ही है
लौट जाओ उसी में चुपचाप
बेआवाज़ जाकर लग जाओ अपनी जगह।
अंत-अंत तक
यह मानने की इच्छा नहीं थी
लौटने की निष्ठुर विवशता थी मगर
और अक्षर तो मैं थी ही
पीले किसी पन्ने पर कब से टिकी