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अखंड ज्योति / अज्ञेय

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 कर से कर तक, उर से उर तक बढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी,
छप्पर-तल से महल-शिखर तक चढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी!
पैंतिस कोटि शिखाएँ जल कर कोना-कोना दीपित कर दें-
एक भव्य दीपक-सा भारत जगती को आलोकित कर दे!

हमें दु:ख है, हमें क्लेश है-उसे जला डालेगी ज्वाला;
पद-दलितों के उर से उठ कर सारा नभ छा लेगी ज्वाला!
हमने न्याय नहीं पाया है, हम ज्वाला से न्याय करेंगे-
धर्म हमारा नष्ट हो गया, अग्नि-धर्म हम हृदय धरेंगे!

मिटना स्वयं, बनाना जग को; जलना स्वयं, जलाना जग को;
शोणित तक से सींच, स्वच्छ रखना उस स्वतन्त्रता के मग को!
जग में बहुत मिलेंगे आजादी के गाने गानेवाले,
गली-गली में गत गौरव के पोले गाल बजानेवाले-

ले तू इस अभिमानी, दानी भारत के भी फूल निराले,
दीवाने परवाने, हँस कर अपना-आप जलानेवाले!
बीते दिन अब निश्चलता के, शान्त कहाँ, उद्भान्त कहाँ हैं?

युद्ध हेतु कटिबद्ध हुए बस, पैंतिस कोटि कृतान्त यहाँ हैं!
कहीं बच गया हो कोई तो तू उस में भी स्फूर्ति जगा दे-
विश्व कँपा दे, ज्योति! जगत् में आग लगा दे! आग लगा दे!

1936