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अखबार जैसा दिन / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
सुबह की खिड़की खुली
अखबार जैसे
गिर गया है दिन।
बढ़ गई फिर
शहर के नाखून-सी
टेढ़ी नदी
सीढ़ियाँ विज्ञापनों की
चढ़ गई
प्यासी सदी
डूबने के डर सरीखे
झाँकते घर
छत-मुँडेरों बिन।
सुर्खियों-से
सड़क या पगडण्डियों पर
उग रहे काँटे
सीत के सैलाब बहते
भीड़ के
बेनाम सन्नाटे
ख़बर है
जल उतरने के बाद
दूने हो गए दुर्दिन।