अखरोट का पेड़ / नाज़िम हिक़मत / वीरेन डंगवाल
यह कविता नाज़िम ने जेल में लिखी थी अपनी दूसरी पत्नी को सम्बोधित करते हुए और 1944 में इस्ताम्बूल रेडियो के लिए रिकॉर्ड करवाई थी।
मैं एक अखरोट का पेड़ हूँ गुलहान पार्क में
न तुम ये बात जानती हो, न पुलिस !
मैं एक अखरोट का पेड़ हूँ गुलहान पार्क में
मेरी पत्तियाँ चपल हैं, चपल जैसे पानी में मछलियाँ
मेरी पत्तियां निख़ालिस हैं, निख़ालिस जैसे एक रेशमी रूमाल
उठा लो, पोंछो मेरी गुलाब अपनी आँखों में आँसू एक सौ हज़ार
मेरी पत्तियाँ मेरे हाथ हैं, मेरे हैं एक सौ हज़ार हाथ
मैं तुम्हें छूता हूँ एक सौ हज़ार हाथों से, मैं छूता हूँ इस्ताम्बूल को
मेरी पत्तियाँ मेरी आँखें हैं, मैं देखता हूँ अचरज से
मैं देखता हूँ तुम्हें एक सौ हज़ार आँखों से, मैं देखता हूँ इस्ताम्बूल को
एक हज़ार दिलों की तरह धड़को, — धड़को, मेरी पत्तियो !
मैं एक अखरोट का पेड़ हूँ गुलहान पार्क में
न तुम ये बात जानती हो, न पुलिस !
अँग्रेज़ी से अनुवाद : वीरेन डंगवाल