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अख़बार अब / रेखा राजवंशी
Kavita Kosh से
बन गया हर शख़्स ही अख़बार अब
सब ख़बरची हो गये बेकार अब
मैं कहाँ हूँ, कौन मेरे साथ है
शोर होता है सरे बाज़ार अब
लुट चुके हो फिर भी कुछ मत बोलना
चोर बन बैठा है इज़्ज़ततदार अब
दोस्ती और दुश्मनी है एक सी
कट गये रिश्तों के सारे तार अब
चश्मेनम उनके के लिए बेचैन है
रात कटनी हो गयी दुशवार अब
लोग सब ख़ुदग़र्ज़ियों में खो गए
हो गयी चाहत भी कारोबार अब
कै़स लैला हीर रांझे क्या हुए
क्यों नहीं मिलता है वैसा प्यार अब
बुझ गए सारे दिए उम्मीद के
बंट गए घर के दरो दीवार अब