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अख़बार / अनुज लुगुन
Kavita Kosh से
मेरे कमरे में पुराना अख़बार
हवा के झोंके से फड़फड़ा रहा है
शायद वह कह रहा है
कि उसे पहुँचा दिया जाए
विज्ञापन कम्पनियों के यहाँ
जिन्होंने उसके चेहरे पर
झूठ का रंगपोत दिया है
या, वह कह रहा है
कि उसे पहुँचा दिया जाए
उन विद्रोहियों के यहाँ जंगल में
जिनसे मुठभेड़ की ख़बर छपी है
मैं चुपके से उठता हूँ
और धीरे से अख़बार को
काठ की तख़्ती से दबा देता हूँ ।