अगन बिम्ब जल भीतर निपजै ! / शिरीष कुमार मौर्य
एक क़स्बे में
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख़्वाह पर
लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक़्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक़्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गन्ध लिए
उसे बीच-बीच में खाँसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में
वहाँ उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आई उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है
उसे जागते-सोते सपने आते हैं –- वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फ़सलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्ला-मंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आई काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें
उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलग़म थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में ग़ाली देती है उसे –-
“तेरी ठठरी बँधे…”
उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर
और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक
पीसते-पीसते वह आटा जला देता है
आटा-चक्की के काम में उसकी लापता ज़मीनों और खेतों के हस्तक्षेप से ऐसा होना सम्भव है
पर आटे का जलना और पाटों का ख़राब होना
अक्षम्य अपराध है
बेटा इण्टर में है अभी और उसके आगे बढ़ने की अच्छी सम्भावनाएँ हैं
पर अपने पिता की इज्ज़त नहीं करता वह उन्हें अधपगला ही समझता है दूसरे दुनियादारों की जगह
अकसर डाँट और झिड़क देता है बात बेबात ही
और उसकी आँसू भरी आँखों से विमुख याद करता है एक पुरानी और अमूमन उपेक्षा से पढ़ी जाने वाली क़िताब में
अपना सबसे ऊबाऊ सबक
किंचित लापरवाही से
- “अगन बिम्ब जल भीतर निपजै”
अपनी तरह का अकेला आदमी नहीं है वह दुनिया में और भी हैं कई लाख उस जैसे अपनी अधूरी इच्छाओं से लड़ते
गहरी हरी उम्मीदों में भूरे पत्तों से झरते
सात सौ साल पुरानी आवाज़ में पुकारती होंगी उन सबकी भी सुलगती –- गीली आँखें
और मैं
हिन्दी का एक अध्यापक
सोचता हूँ कवि का नाम तक पढ़ना नहीं आता जिन्हें
उन्हीं में क्यों समाता है कवि ?
इस तरह अपने होने को बार-बार क्यों समझाता है कवि ?