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अगम्य छंद जो लगा / अनुराधा पाण्डेय

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अगम्य छंद जो लगा, प्रदोष चित्त हो पगा, सुबोध जो नहीं जगा, लेखनी अशुद्ध हो।
कुहेलिका विछिन्न हो, प्रबोध भिन्न-भिन्न हो, सु-छंद जो अभिन्न हो, काव्यिका विशुद्ध हो।
उपत्यका तभी चढ़े, सु-शब्द मूर्त जो गढ़े, सु-चित्र ही दिखे पढ़े, भाविका निरुद्ध हो।
सुकाव्य प्रेरणा बने, सुबोध सार हों घने, स-पूज्य कर्म में सने, कर्मिका प्रबुद्ध हो।