अगरचे मैं इक चट्टान सा आदमी रहा हूँ / मोहसिन नक़वी
अगरचे मैं इक चट्टान सा आदमी रहा हूँ
मगर तेरे बाद हौसला है के जी रहा हूँ
वो रेज़ा रेज़ा मेरे बदन में उतर रहा है
मैं क़तरा क़तरा उसी की आँखों को पी रहा हूँ
तेरी हथेली पे किस ने लिखा है क़त्ल मेरा
मुझे तो लगता है मैं तेरा दोस्त भी रहा हूँ
खुली हैं आँखें मगर बदन है तमाम पत्थर
कोई बताए मैं मर चुका हूँ के जी रहा हूँ
कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितम-गरी की
के मैं गुलाबों के ज़ख़्म काँटों से सी रहा हूँ
न पूछ मुझ से के शहर वालों का हाल क्या था
के मैं तो ख़ुद अपने घर में भी दो घड़ी रहा हूँ
मिला तो बीते दिनों का सच उस की आँख में था
वो आश्ना जिस से मुद्दतों अजनबी रहा हूँ
भुला दे मुझ को के बे-वफ़ाई बजा है लेकिन
गँवा न मुझ को के मैं तेरी ज़िंदगी रहा हूँ
वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन'
ये नाज़ कम है के मैं भी उस का कभी रहा हूँ