अगर आदमी ख़ुद से हारा न होता / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
अगर आदमी ख़ुद से हारा न होता ,
ख़ुदा को किसी ने पुकारा न होता !
कहां आसमां पर ख़ुदा बैठ जाता ,
जो हम ने ज़मीं पर उतारा न होता !
बदलता नहीं वक़्त यह रंग अपने ,
किसी आदमी का गुज़ारा न होता !
नहीं ख़्वाब कोई हक़ीक़त में ढ़लता ,
जो दस्ते-जुनूं ने सँवारा न होता !
बुझानी अगर आग आसान होती ,
किसी राख में फिर अँगारा न होता !
कहीं पर भी होती अगर एक मंज़िल ,
तो गर्दिश में कोई सितारा न होता !
ये सारे का सारा जहां अपना होता ,
अगर यह हमारा तुम्हारा न होता !