अगर कभी आओ लौटकर / पल्लवी त्रिवेदी
दीवारें भुरभुरी हो चुकी होंगी शायद
खिड़कियों के हाथ बूढ़े हो चुके होंगे
छत के कमजोर काँधें ढो रहे होंगे स्मृतियों का बोझ
मैं कोशिश करूँगी कि रुकूँ तुम्हारे आने तक
पर न ठहर पाऊं शायद
अकेले मकान से जल्दी जर्जर अकेला आदमी होता है
मगर आकाश के अनन्त वितान पर उम्मीदें चमकती हैं
पेड़ों पर बुलबुल गाती है गीत प्रतीक्षा का
जाने वाला एक बार वापस लौटता है छोड़ी गई जगह पर
किसी नामालूम वजह से
कहीं घर हमें भूल तो न गया ?
अब भी किवाड़ों की आंखों में प्रतीक्षा का काजल है या नहीं ?
कहीं हम भी तो छोड़ नहीं दिए गए ?
खुद को प्रेमी की स्मृति में हमेशा दर्ज रखने की चाह एक निर्दोष चाह है
प्रेमी को विस्मृत कर देने के दोष के बावजूद
जीवन की साँझ में स्मृतियां भूखी बाघिन सी झपटती हैं
लिए फिरती हैं मुँह मे दबोचकर अतीत के अरण्य मे
तुम अगर आओ लौटकर
तो बैठना थोड़ी देर दीवारों से टिककर
बगीचे में लगे गुलमोहर के नीचे बैंच पर एक टुकड़ा शाम का बिताना
तुलसी पर दिया लगा देना
पंछियों को दाना डालना
मैं शायद न मिलूं
पर तुम घर के लिए सब करना
क्योंकि अकेला घर मरता नहीं आसानी से अकेले आदमी की तरह
खंडहरों में अधूरे इंतज़ार भटकते हैं हवा की रुलाई बनकर
तुम लौटना प्रिय... ज़रूर लौटना
दो प्रतीक्षाओं को मोक्ष देने के लिये