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अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन
मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.