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अगर तुम्हारी उपस्थिति में मैं / अज्ञेय

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पुअगर तुम्हारी उपस्थिति में मैं अभिमान और अहंकार से भर जाती हूँ-
तो, प्रिय! तुम उस धूली के अभिमान की याद कर लिया करो जो कि तुम्हारे पैरों के नीचे कुचली जा कर क्रुद्ध सर्प की तरह फुफकार कर उठ खड़ी होती है।

डलहौजी, सितम्बर, 1935