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अगर मुझ कन तू ऐ रश्क‍-ए-चमन होवे / वली दक्कनी

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अगर मुझ कन तू ऐ रश्‍क-ए-चमन होवे तो क्‍या होवे
निगह मेरी का तेरा मुख वतन होवे तो क्‍या होवे

सियह रोज़ाँ के मातम की सियाही दफ़्अ करने कूँ
अगर यक निस तू शम्‍मे-अंजुमन होवे तो क्‍या होवे

तेरी बाताँ के सुनने का हमेशा शौक़ है दिल में
अगर यकदम तूँ मुझ सूँ हमसुख़न होवे तो क्‍या होवे

हुआ जो शौक़ में तुझ देखने के ऐ हलाल अबरू
उसे अँखियाँ के पर्दे का कफ़न होवे तो क्‍या होवे

अगर ग़ुंचा नमन इक रात इस हस्‍ती के गुलशन में
'वली' मुझ बर में वो गुल पैरहन होवे तो क्‍या होवे