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अगर मेरे पंख होते / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
अगर मेरे पंख होते
तो आकाश में उड़ता।
तुमने उन्हे कतर डाला है
मैं उन्हें
अपने ही आस-पास
बिखरा पाता हूँ
मैं असहाय हो सकता हूँ
पर तुम
मेरा सोचना: स्वप्न देखना
नहीं रोक सकते।
मैं अब भी
ठूँठियाें को
फड़फड़ाता हूँ
पर उड़ान नही भर सकता।
मेरी विवशता पर
तुम व्यंग्य हँसी
हँसते हो।
पृथ्वी की उर्वर हरितिमा
मुझे अपनी ओर खींचती है
आकाष की नीलिमा
अपनी तरफ़
किससे पूछूँ
कहाँ जाऊँ
क्या करूँ
अपने खोए पंख पाने को।
त्रासद जीवन की गहराइयाँ
कैसे खोजूँ।
मैं अपनी कच्ची इच्छाओं के
पतझर को
ध्वस्त हुए खंडहरों में
बरसते सुनता हूँ
अब मुझे लगा
पंख देह की शोभा नहीं
मेरा जीवन है।
2006