अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता / द्विजेन्द्र 'द्विज'
अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
किसी भी सिम्त से उस पर कोई पत्थर नहीं आता
अँधेरों से उलझ कर रौशनी लेकर नहीं आता
तो मुद्दत से कोई भटका मुसाफ़िर घर नहीं आता
यहाँ कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुंध बाँटी है
नज़र अब इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता
जो सूरज हर जगह सुंदर—सुनहरी धूप लाता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता
अगर इस देश में ही देश के दुशमन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो ख़ुद को बेचने की फ़ितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर ज़ुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे ज़ुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
ग़ज़ल को जिस जगह ‘द्विज’, चुटकुलों सी दाद मिलती हो
वहाँ फिर कोई भी आए मगर शायर नहीं आता