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अगर साथ दोगे! / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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अगर साथ दोगे तुम्हारी खुशी है,
नहीं साथ दोगे अकेले चलूँगा।

 जानता, अर्थयुग है, चुकाना यहाँ
 चंद सिक्कों में होता है हर पावना
 तुम न कोशिस करो मापने की मगर
 तुच्छ सिक्कों से मेरी विमल भावना
मैं छलाता रहा हूँ, छलाता रहूँगा,
मगर आत्मजन को कभी न छलूँगा।

 जानता, विश्व में कब हुई पूर्ण है
 मर्त्य मानव की सोची हुई कामना
 चूर होता सपनसौख्य का दोस्तों !
 वास्तविकता से होता है जब सामना
लालसा थी यही संग रहूँ उम्र भर,
चाह पूरी किये बिन मगर अब टलूंगा।

 सोचता था रहोगे मेरे साथ तुम
 हर खुशी में मेरी और हर क्लेश में
 किन्तु क्या जानता था मेरा शत्रु ही
 आ मिला है मुझे मित्र के वेश में
तोम तम में यथा दीप जलता सदा
त्यों तुम्हारे लिए मैं हमेशा जलूँगा।