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अगर हम दश्त-ए-जुनूँ में न ग़ज़ल-ख़्वाँ होते / सय्यद ज़मीर जाफ़री

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अगर हम दश्त-ए-जुनूँ में न ग़ज़ल-ख़्वाँ होते
शहर होते भी तो आवाज़ के ज़िंदाँ होते

ज़िंदगी तेरे तक़ाज़े अगर आसाँ होते
कितने आबाद जज़ीरे हैं कि वीराँ होते

तू ने देखा ही नहीं प्यार से ज़र्रों की तरफ़
आँख होती तो सितारे भी नुमायाँ होते

इष्क़ ही शोला-ए-इम्कान-ए-सहर है वर्ना
ख़्वाब ताबीर से पहले ही परेशाँ होते

माज़ी ओ दोश का हर दाग़ है फ़र्दा का चराग़
काश ये शाम ओ सहर सर्फ़-ए-दिल-ओ-जाँ होते

ज़ब्त-ए-तूफ़ाँ की तबीअत ही का इक रूख़ है ‘ज़मीर’
मौज आवाज़ बदल लेती है तूफ़ाँ होते