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अगर / रमापति शुक्ल
Kavita Kosh से
खूब बड़ा-सा अगर कहीं,
संदूक एक मैं पा जाता।
जिसमें दुनिया भर का चिढ़ना,
गुस्सा आदि समा जाता।
तो मैं सबका क्रोध, घूरना,
डाँट और फटकार सभी।
छीन-छीनकर भरता उसमें,
पाता जिसको जहाँ जभी।
तब ताला मजबूत लगाकर,
उसे बंद कर देता मैं।
दुनिया के सबसे गहरे
सागर में उसे डुबा आता
तब न किसी बच्चे को कोई-
कभी डाँटता, धमकाता!