अगस्त '65 की आख़िरी कविता / राजकमल चौधरी
नीलमणि के लिए
एक
किराए पर लाए गए लाउडस्पीकर के अलावा (जो अब
तेज़ आवाज़ में ‘रामधुन’ बजा रहा था),
जुलूस के सारे लोग बेहोश हो गए, अचानक,
टियर-गैस और अफ़वाहें
हमारी बुद्धि, और हमारे सार्वजनिक परिताप को
व्यर्थ करने लगीं ।
ज़्यादा मोटे और कम लम्बे व्यक्तियों ने कहा,
चुप रह जाओ, मौसम
चुप रहने से ही बदलता है ।
यों भी, आजकल,
बेवफ़ाई है शोर-गुल करना;
चुप रहो, हे प्रजा-जन
जो कुछ भी कहना है अपने प्रभु से
चुप रह कर ही कहो !
लेकिन उनकी बात पर अमल करने के पहले ही,
जुलूस के सारे लोग बेहोश हो गए ।
अचानक, हमारी उपलब्धियाँ,
हमारे कीर्तिमान
किरानियों और नर्सों के इस शहर के साथ;
सिनेमाघरों और अस्पतालों में
ग़ायब होने लगे
इस सड़क पर सिर्फ़ एक मैं चलता रहा,
टूटी हुई झण्डियाँ उठाए हुए,
बेच डाले गए नारों को समेटने के लिए ।
— एक मैं चलता रहा
चरैवेति, चरैवेति, अब भी कोई मेरे अन्दर
गूँजता रहता है ।
सतरह साल हो गए, पूरे सतरह
साल! चौथी योजना भी
अब पूरी होने को आई,
लेकिन,
क्या हुआ ? किसके लिए ?
उत्तर कोई नहीं देगा,
उत्तर नहीं है ।
शतरंज का घोड़ा घेरता है एक साथ
आठों घर !
जब चाहे वह जिस मकान में
सो जाएगा, अनायास !
दो
मेरी आँखों में छटपटाती हैं तालाब की सारी मछलियाँ,
पानी कम है, लेकिन
मेरी आँखों में सफ़ेद दरपन है ।
एक बार उसको भी (कितने दिन हो गए ?)
मैंने बे-पहचाने देखा था
किसी किताब में,
शायद वह डूबी थी ।
अकेली ।
मैंने उसको इन्हीं मछलियों की तरह, किताब में
छटपटाते हुए देखा था ।
मैंने कहा भी था उसे — नीलमणि, उठो अब
रोशनी चली आएगी, इसी छन
अन्धेरा झलमलाने लगेगा ।
चलो, मौसम को बदलने के लिए हम-तुम
प्रार्थना करें,
हम चुप नहीं रह जाएँ, केवल
जिसे नहीं जानते हैं,
उससे कहें कि ऐ मेहरबान,
रोशनी का मौसम
हमारे लिए भी ज़रूरी है,
आग की तरह !
नीलमणि मेरी आँखों में अब तक झिलमिलाती है
नीलम हो जाता है मेरा आकाश
बादल नहीं हैं, सिर्फ़
एक दरपन है — टूटा हुआ ।
तीन
यह अगस्त भी आज की ही रात, बारह बजे
बीत जाएगा । मैं सतरह साल
और, चार योजनाओं के दुख-स्वप्न
भूलकर, इस बार भी कहूँगा
तुमसे कि सुनो,
बादल खुल गए हैं, आकाश में
चान्दनी के पेड़
उग आए हैं ।