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अग्निकोण / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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अग्निकोण के अंचलों में हलचल मचाती ज़ोरदार आँधी से-
मचल उठा है काला पानी
नींद से जागकर, एकजुट ज्वार के
तेज धारवाली तलवार से
खून में नहा-नहा उठता है स़फेद फेन।

वन में, जंगल में, फड़फड़ा उठते हैं प्रतिहिंसा के पंख।
काँधे पर रखा जुआ उठाकर फेंक देते हैं
कमान-जैसी झुकी पीठवाले लोग
अब पीठ तानकर सीधे खड़े हुए हैं
पेराक में, पेनांग में, टिन की खान में
रबर के जंगलात में
मसालों के द्वीप में
इरावती के दोनों ओर
सोना उपजाती घाटी में
नीलकान्त मणि के झिलमिलाते देश
जावाद्वीप में
श्याम में, काम्बोज में
और आनामी पहाड़ों में
मेकांग नदी के ज्वारजल में
नींद से जाग उठे अग्निकोण के लोग।

रक्त कीच में दुश्मनों को गाड़कर
अँधेरे के सीने पर घुटने गड़ाकर,
दोनों हाथों से फाड़ डालेंगे, अब दुःशासन का वक्ष।
बादलों को चक़मक़-सा टकराकर
ढूँढ़ रहे पथ के निशान।

बिजली की घनगरज से मिलाकर अपने स्वर
पुकार रहे हैं-
भाई रे, आ गया है दिन
ख़ून से खू़न का क़र्ज़
अदा करने का।

भाई रे, आ गया है दिन
विदेशी राज के प्राणकीट को
नाखू़नों से मसलकर मार डालने का
आ गया है दिन
हल की नोंक से खर-पतवार
उखाड़ फेंकने का।
आ रहा है दिन
हँसिये की धार पर
नयी फ़सल बटोर लाने का।

एक सौदागर साहब की लाश
नोंच-नोंच कर खा जाते हैं गिद्ध
लुटेरे के पच्चीस युगों को
साम्राज्य के नशे में डूबी आँखों से।
उस दृश्य को देख-
देश को प्यार करते हुए
जिनके बाप-दादाओं ने फाँसी के फंदे पर गँवा दी अपनी जान।
उस दृश्य को देख-
गोरा बेटा कोख में रखकर
जिसकी एक युवा बेटी ने गले में डाल लिया फनदा।
उस दृश्य को देख-
जिसके ख़ानदान का चिराग
महामारी फेलाती हवा से बुझ गया।

देश की माटी में ही मर-खप गये
सुलतान, राजे-रजवाड़े, वज़ीर और शिखण्डियों के सिर।
एक-एक बस्ती में, अत्याचारियों की
त्राहि-त्राहि मची पुकार
झुंड के झुंड राहत पहुँचाने वाले हवाई जहाज़
हवाओं में बारूद ठूँसते हुए
तोप के दहानों से मौत की आँधी फूँकते हैं।

दुधमुँहे शिशुओं को अपने सीने से चिमटाए-
अग्निकोण के शहरों और गाँवों के हज़ारों हज़ार लोग मर जाते हैं।
उस आग में अपनी राह पहचानता है
आदिगन्त फैला वंचितांे का जुलूस।
ख़ून से तर-बतर हो उठता है लाल निशान।
जल में, जंगल में, पहाड़ों के तल में
फड़फड़ा उठते हैं प्रतिहिंसा के पंख।
मौत की आँधी को खदेड़ती
अँधेरे की गर्दन दबाकर
रक्त की नदी पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं
भाटे में उतराते अग्निकोण के तमाम लोग।

एक-एक बैरक में जाग रही विद्रोही सेना
अस्त्रागारों के कपाट खोलकर
वह जनता के पास खड़ी है।
अनगिनत पाँवों के क़दम ताल से
काँप-काँप उठती है धरा।
छितरे-बिखरे डाकुआंे के गिरोह
आगज़नी से राज्य को जला-झुलसाकर
दुम दबाये भाग रहे हैं जहाज़ और वायुयान से।

लाखों-लाख हाथ में
अँधेरे के दो टुकड़े कर
अग्निकोण के लोग लिये आये हैं
तोड़कर-सूर्य।

करोड़ों कंठ की हुंकार से
पड़ गये हैं सुन्न वज्र के कान।
एक-एक झुलसे खेतों में
जाग उठा-बसन्त गान।