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अग्नि-परीक्षा / रचना त्यागी 'आभा'

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इतने युग, इतने वर्षों से
पावक तपीं इतनी सीताएँ
देने को विविध परीक्षाएँ
अपने चरित्र की, दृढ़ता की
कि गंध भी उनकी देह की अब
अग्नियों को है लगती परिचित
सो प्रेम से वह अपना लेती।
जिस दिवस परीक्षा लेगा काल
शौर्यवान औ धैर्यवान
औ निष्कलंक किसी राम की
अग्नि भी न पहचानेगी
उस नव विचित्र आगन्तुक को
न करेगी उसका आलिंगन,
न होगा उसका दहन!
तब भूल यह तुम न करना,
उसे मानने की पावन,
क्योंकि अग्नि तो है निर्मल
अपनाएगी केवल निश्छल
पर तिरस्कार वह कर देगी,
जिसमें पायेगी तनिक भी छल,
जिसमें न होगा सत्य का बल!
और हो जायेगा वह असफल!!