अग्नि-प्रणाम / प्रेम शर्मा
बूढ़ा बरगद
छाँह घनेरी,
मन्दिर
घाट
नदी के,
आसमान
धूसर पगडण्डी,
कब से तुझे
पुकारे,
लौट न आ रे
लौट ना रे...
सौदागर
नगरी में जाकर
क्या खोया
क्या पाया,
भोला मुखड़ा
सपन सजीले,
हीरा
कहाँ गँवाया,
कहाँ गया
तेरा इकतारा,
राम
कहाँ बिसराया,
कुछ तो कह
ओ राम बावरे
कुछ तो गा रे !
कंचन नगरी
छत्र बिराजै
मन्दिर बरन
मदिरा-सुख साजै,
कामिनी
निरत करे हमजोली,
रंग अनन्त
अनन्त ठिठोली,
ऐहिक
इन्द्रजाल उरूझानी
हिवड़ा
हुलुक-हुलुक हलकानी,
माहुर-धार
कटार सरीखी,
तृष्णा
मृग-तृष्णा रे,
मातुल
पितुल कहाँ रे !
प्राण पुहुप
जननी हम तेरे
पुनरपि जन्मम
हेरे-फेरे,
निपट अजोग
ललाट लिखाने,
हम हीरा
अनमोल बिकाने,
टूटा
रुनक-झुनक
इकतारा,
ना हम जीते
ना जग हारा,
लीजो
अग्नि-प्रणाम हमारे,
कीजो
हमें क्षमा रे !
(साक्षात्कार, अगस्त 1998)